मैंने ओशो का केवल नाम ही सुना था। ढेर सारे बाबाओं की लिस्ट में से उन्हें भी एक ही मानता था। कई बार उन्हें पढ़ने का मौका भी मिला, मगर मैंने उन्हें नहीं पढ़ा। कारण था बाबाओं को लेकर मेरे मन का पूर्वाग्रह। मगर जब एक बार उन्हें सुना, तो यह धारणा टूट गयी। जिन्होंने ओशो को पढ़ा या सुना है, उनमें से कई लोगों के मन में सवाल आया होगा कि आखिर इस ईश्वर विरोधी शख्स ने बाबाओं जैसे इस भेष को क्यों चुना? क्यों खुद को भगवान घोषित कर लिया? इस सवाल का जवाब अगर आप उन्हीं के शब्दों में सुनेंगे तो ज्यादा बेहतर होगा। इसलिए प्रस्तुत है ओशो रजनीश द्वारा 12 जनवरी, 1985 को दिए गए भाषण के अंश।
जवानी में यूनिवर्सिटी में मैं नास्तिक और अधार्मिक व्यक्ति के रूप में जाना जाता था। प्रत्येक आचार व्यवस्था के खिलाफ था और आज भी यह बरक़रार है। इससे एक इंच भी पीछे नहीं हटा। पर नास्तिक, अधार्मिक और प्रत्येक आचार व्यवस्था विरोधी पहचान मेरे लिए एक समस्या बन गयी। लोगों के साथ किसी तरह का संचार मुश्किल था। लोगों के साथ किसी तरह का संपर्क स्थापित करना लगभग असंभव था। जब लोगों को पता चलता कि मैं नास्तिक हूँ, अधार्मिक हूँ और आचार व्यवस्था का विरोधी हूँ तो वे सारे दरवाजे बंद कर लेते। मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता, किसी स्वर्ग-नरक में विश्वास नहीं करता। लोगोँ के लिए यह विचार ही मुझसे दूर भागने के लिए काफी था। मैं विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था इसलिए सैकड़ों प्रोफेसर, शोध छात्र मुझसे कतराते थे क्योंकि वे जिस चीज में विश्वास रखते थे उसे कहने का उनमें हौसला नहीं था। अपने विचारों के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं था।
विश्वविद्यालय की सड़कों के नुक्कड़ों पर, पान की दुकानों पर, जहाँ भी कोई मिलता, वहीँ तर्क करता रहता था। मैं धर्म पर सीधी चोट करता था, लोगों को इस बकवास से पूरी तरह छुटकारा दिलाने की पूरी कोशिश करता था। इसका परिणाम यह निकला कि मैं एक द्वीप बनकर रह गया। कोई मुझसे बात करके राजी नहीं था। उन्हें डर था कि यदि उन्होंने मुझे बुलाया तो पता नहीं मैं उनको कहाँ ले जाऊँ। आख़िरकार मुझे अपनी रणनीति बदलनी पड़ी।
मैं सचेत हुआ कि जो लोग सत्य की खोज के इच्छुक हैं वे आश्चर्य की सीमा तक धर्म से जुड़े हैं। अधार्मिक समझा जाने के कारण मैं उनसे विचार विमर्श नहीं कर सकता था। यही लोग सत्य की खोज के इच्छुक थे। यही लोग थे जो मेरे साथ अनजानी राहों पर चल सकते थे। पर ये लोग पहले ही किसी धर्म सम्प्रदाय या दर्शन से जुड़े थे। उनका मुझे अधार्मिक सोंचना ही बाधा बन गया। इन्हीं लोगों की मुझे जरुरत थी।
वे लोग भी थे जो धर्म में लीन नहीं थे, पर उनमें सत्य की खोज की जिज्ञासा नहीं थी। यदि उन्हें प्रधानमन्त्री पद और सत्य में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाता तो वे प्रधानमंत्री पद को प्राथमिकता देते। सत्य के बारे में वे कहते, “कोई जल्दी नहीं। यह तो कभी भी किया जा सकता है। प्रधानमंत्री पद फिर शायद कभी न मिले। सत्य तो हर किसी का स्वभाव है, इसे कभी भी प्राप्त किया जा सकता है। सबसे पहले वह करना चाहिए जो क्षणिक है, समयबद्ध है और जिसका समय हाथ से निकल रहा है। ऐसा सुहाना सपना शायद फिर न आये। सत्य तो कहीं भागा नहीं जाता।”
उनका रुझान सपने, कल्पना की ओर था। उनकी और मेरी बातचीत असंभव थी क्योंकि मेरे और उनके हित अलग अलग थे। मैंने पूरी कोशिश की पर इन लोगों की धर्म में, सत्य में और अन्य किसी महत्वपूर्ण बात में रूचि नहीं थी। जिनकी रूचि थी वे ईसाई थे, या हिन्दू, मुसलमान, जैन या बौद्ध थे। वे पहले ही किसी धर्म या विचारधारा से जुड़े थे। अब मुझे स्पष्ट हो गया था कि मुझे धार्मिक होने का नाटक करना पड़ेगा। कोई और रास्ता भी नहीं था। इसके बाद ही मुझे असली खोजी मिल सकते थे।
मैं धर्म शब्द से ही नफ़रत करता था। मैंने सदा इससे नफरत की है। पर मुझे धर्म पर बोलना पड़ा। धर्म की आड़ में जो बातें कहीं असल में वो वह नहीं था जो लोग समझते थे। वह सिर्फ रणनीति थी। उनके शब्द ईश्वर, धर्म और मुक्ति का मैं प्रयोग कर रहा था पर उन्हें अपने अर्थ दे रहा था। इस तरह मैंने लोगों को ढूँढना शुरू किया, वे मेरे पास आने लगे।
लोगों की नजरों में अपनी छवि सुधारने में कई वर्ष लगे। लोग शब्द तो सुनते थे पर उनके अर्थ नहीं समझते थे। लोग वही समझते हैं जो तुम कहते हो। जो कुछ अनकहा रह जाता, वो उसे नहीं समझते थे। इसलिए मैंने उनके हथियार को ही उनके ख़िलाफ़ प्रयोग किया। मैंने धर्मग्रंथों पर टिप्पणी की मगर उन्हें अपने अर्थ दिए। वह चीजें मैं बिना टिप्पणी के भी कह सकता था, वह मेरे लिए आसान थी, क्योंकि तब मैं सीधा तुमसे बात कर रहा होता। फिर कृष्ण, महावीर और ईसा को बीच में घसीटने की कोई जरुरत नहीं थी, वह सब भी कहने की जरुरत नहीं थी, जो उन्होंने कभी नहीं कहा। यह मानवता की मूर्खता है कि वहज बातें जो मैं पहले कहता रहता था, जिन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं था, अब क्योंकि मैं कृष्ण बोल रहा था इसलिए हजारों लोग मेरे आस पास इकट्ठे होने लगे।
यही एकमात्र तरीका है। जब मैंने ईसा पर बोलना शुरू किया तो ईसाई कॉलेजों और ईसाई धार्मिक संस्थाओं नें मुझे बोलने के लिए बुलाना शुरू किया, मैं मन ही मन हमेशा हँसता रहता। क्योंकि मूर्ख समझते हैं कि यह ईसा ने कहा है। हाँ, मैंने ईसा के शब्द प्रयोग किये हैं। किसी के शब्दों के खेल को समझने की जरुरत है, फिर किसी भी शब्द को कोई भी अर्थ दिया जा सकता है। वे सोंचते हैं कि यही ईसा का वास्तविक सन्देश है। वे कहते हैं कि ईसाई मिशनरियों और पादरियों ने ईशा के लिए इतना नहीं किया जितना आपने किया है।
मैं चुप रहता। मैं जानता था मुझे ईसा से कुछ नहीं लेना। जो कुछ मैं कह रहा था, ईसा तो उसे समझ भी नहीं सकता। वह बेचारा तो बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति था। इसमें कोई शक नहीं कि उसका व्यक्तित्व चुम्बकीय है। उसके लिए अनपढ़ और स्वर्ग के लोभियों को इकठ्ठा करना मुश्किल काम नहीं था। यह आदमी वादे करता था और इसके बदले में माँगता कुछ नहीं था। फिर उसमें विश्वास करने में क्या हर्ज है? कोई खतरा नहीं, कोई जोख़िम नहीं। यही कोई ईश्वर नहीं, स्वर्ग नहीं, तो तुमने कुछ नहीं खोया। यदि ये कहीं हों तो मुफ़्त लाभ ही लाभ। बहुत आसान हिसाब किताब है। यह आदमी कुछ नहीं जनता। उसके पास कोई तर्क नहीं है। वह उन्हीं चीजों को दोहराता है जो उसने दुनिया से सुनी हैं। परन्तु वह कट्टर किस्म का अड़ियल नौजवान था। जो कुछ मैं ईसा के नाम पर कहता था, वह पहले भी कह रहा था। पर तब किसी ईसाई कॉलेज या धार्मिक संस्थाओं नें मुझे नहीं बुलाया। बुलाना तो दूर, अगर मैं जाने की कोशिश भी करता तो दरवाजे बंद कर लेते। यह स्थिति थी। मुझे मेरे अपने शहर के बीच स्थित मंदिर में जाने से रोका गया… पुलिस की सहायता से। पर अब उसी मंदिर वालों नें मुझे बुलाना शुरू किया।
मैंने अपने ढ़ंग तरीके निकाले। मैं ईश्वर पर बात करता और कहता कि ईश्वर तो बहुत अच्छा शब्द है। मैं ईश्वरता पर बोल रहा था इसलिए पुजारियों से ठगे गए सत्य के पथिकों नें मुझमें रुचि लेनी शुरू कर दी। मैंने सभी धर्मों का सार इकठ्ठा कर लिया। मैंने रास्ता ढूँढ लिया। मैंने सिर्फ यह सोंचा, “उनके शब्दों का इस्तेमाल करो, उनकी धार्मिक पुस्तकें इस्तेमाल करो। यदि तुम किसी और की बन्दूक चला रहे हो तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम अपनी गोलियाँ नहीं प्रयोग कर सकते। बन्दूक किसी की भी हो, गोलियाँ मेरी ही हैं। असली काम तो गोलियों को ही करना है, फिर क्या हर्ज है? यह बहुत आसान काम था। मैं हिन्दू शब्दों का इस्तेमाल करके वही खेल खेल सकता था, मुसलमानी शब्द प्रयोग करके यही खेल खेल सकता था, ईसाई शब्दावली प्रयोग करके खेल खेल सकता था।”
मेरे पास सिर्फ यही लोग नहीं आये बल्कि जैन, साधु, साध्वियाँ, हिन्दू और बौद्ध साधू, ईसाई मिशनरी और पादरी हर किस्म के लोग मेरे पास आये। तुम यकीन नहीं करोगे, तुमने मुझे कभी हँसता हुआ नहीं देखा होगा। अंदर ही अंदर मैं इतना हँसा हूँ कि अब मुझे हंसने की जरुरत ही नहीं पड़ती। मैं तुम्हें सारी उम्र लतीफ़े सुनाता रहा हूँ पर मैं नहीं हँसता क्योंकि मैं तो सारी उम्र मजाक ही करता रहा हूँ। इससे अधिक मजाक की बात क्या हो सकती है कि मैं सारे पादरियों और महान विद्वानों को इतनी आसानी से बुद्धू बनाने में कामयाब हुआ। वे मेरे पास सवाल लेकर आने लगे। शुरू शुरू में मुझे उनके शब्द सावधानी से बोलने पड़ते। मैं शब्दों और पंक्तियों में अपने विचार चला देता, जिनमें मेरी रूचि होती।
शुरू शुरू में लोगों को धक्का सा लगा। वे लोग, जो जानते थे कि मैं नास्तिक हूँ, असमंजस में पड़ गए। स्कूल का मेरा एक मास्टर कहता है, “क्या हो गया? क्या तू बदल गया?” और उसने मेरे पैर छुए। मैंने कहा, “पैरों को हाथ मत लगाओ। मैं नहीं बदला और मरते डैम तक नहीं बदलूँगा।” ऐसा कई बार हुआ। एकबार मैं जबलपुर मुस्लिम संस्था में बोल रहा था। मेरा मुसलमान टीचर वहाँ प्रिंसिपल था। जब मेरे टीचर ने मुझे देखा तो कहने लगे, “मैंने मुअजजे होते सुने हैं पर यह तो अचानक मुअजजा है। तू सूफ़ीवाद और इस्लाम की आधारभूत फिलॉसफी पर बोल रहा है?” मैंने कहा, “मैं आपसे झूठ नहीं बोलूँगा, आप मेरे पुराने टीचर हो। मैं तो अपने दर्शन पर ही बोलूँगा। हाँ कभी कभार इस्लामी शब्द चलाऊँगा, बस…।” …. अब मैंने अपने लोगों का चुनाव किया। सारे भारत में मैंने अपने ग्रुप बनाने शुरू किये।अब मेरे लिए सिख मत, हिंदू या जैन मत पर बोलना अनावश्यक था। पर लगातार दस वर्ष मैं इनपर बोलता रहा। धीरे धीरे जब मेरे अपने लोग हो गए तो मैंने बोलना बंद कर दिया। बीस साल सफ़र में रहकर मैंने सफ़र करना बन्द कर दिया। क्योंकि अब जरुरत ही नहीं थी। अब मेरे अपने लोग थे। दुसरे आना चाहते तो मेरे पास आ सकते थे। …कई साल सन्यास देने के बाद काम छोड़ दिया, तीन साल के लिए। एक अंतराल जिसमें कोई जाना चाहे तो जा सकता था। क्योंकि मैं किसी की जिंदगी में दखल नहीं देना चाहता था।